अब ना कोई रोटी,
ना कोई रोजगार मांग रहा है।
दौर-ए-नफरत से परेशान
हर शख्स,
चैन से जीने का
अधिकार मांग रहा है।
हालात जो भी थे पहले,
आज से तो बेहतर थे।
इतनी नफरत तो नहीं थी,
गिले-शिकवे भी थे। सुरेश,सलीम,जोसेफ और मंजीत
सभी खेला करते थे,
मिलकर जिस दिन,
हर बच्चा आज वो
हसीन इतवार मांग रहा है।
अब ना कोई रोटी
ना रोजगार........।
खिलता था हर रंग का फूल
बाग-ए-वतन में।
एक ही रंग के फूल को पानी दे,
ऐसा तो माली नहीं था चमन में।
बड़ी रौनक थी,
महकता हुआ उपवन जो था,
हर फूल आज वही
बाग-ए-बहार मांग रहा है।
अब ना कोई रोटी...
ना कोई रोजगार.....।
सियासत भी थी,
बचकाने बोल भी थे।
पड़ोसी को पड़ोसी से लड़ा दे,
इतने तो बिगड़े बोल ना थे।
न्याय और सुरक्षा का विश्वास लिए
पीड़ित पुलिस तक आता था।
बेबस बेचारा वर्दी तुझसे, डर नहीं
आज वही ऐतबार मांग रहा है।
अब ना कोई रोटी
ना रोजगार........।
दिलों में नफरत, सांसो में जहर,
घोल दिया सियासत वालों ने
जो प्रेम और भाईचारे की
बात बताने चले थे,
उनको भी बदनाम कर दिया
मीडिया वालों ने।
दखल अंदाजी ना हो
किसी पक्ष की,फैसला देने में,
यही तो आजादी अब
न्याय का दरबार मांग रहा है।
अब ना कोई रोटी....
ना कोई रोजगार....।
स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व का भाव रहे हर दिल में,
ना कोई जाति ना कोई मजहब,
बस मुल्क बढ़ा रहे सदा
"हम भारत के लोग"से
शुरू हो संवाद सदा।
अपनी प्रस्तावना का संविधान
यही तो सार मांग रहा है।
अब ना कोई रोटी,ना रोजगार मांग रहा है।
दौर-ए-नफरत से परेशान हर शख्स चैन से जीने का
अधिकार मांग रहा है।
बबलेश कुमार
उदयपुर राजस्थान
3 टिप्पणियाँ
Very very nice
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंSuperb poem of politician
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