Abki baar corona ki maar, new kavita
अबकी बार पड़ी है
प्रकृति की मार।
कोरोना ने मचा दी
दुनिया में हाहाकार।
मस्जिदों पर ताले पड़े
बंद हुए मंदिरों के द्वार।
सूनी हुई सड़कें,
वीरान हुए बाज़ार।
बस अपने घर तक ही
सिमट गया सबका संसार।
खूब लूटा प्रकृति को
विकास के नाम पर,
हालात आज ये है कि
घरों में कैद है सब,
कोई नहीं जा रहा काम पर।
पंछियों को पिंजरे में कैद किया
पशुओं पर भी किया जुल्म अपार।
बेजुबा मासूमों को
मार के खा गए।
नहीं ली तुमने कभी
पश्चाताप की डकार।
Coronavirus, corona poem
अबकी बार पड़ी है
प्रकृति की मार,
कोरोना ने मचा दी
दुनिया में हाहाकार।
विकास के नाम पर,
पहाड़ काट डाले,
नदियां दूषित कर डाली।
धरती की छाती
छलनी कर डाली।
जंगल के जंगल काट डाले।
पंछियों के पर काट डाले।
अमीर रोज अमीर बनता गया,
नहीं मिटे कभी
गरीब के पैर के छाले।
सच को सूली पर चढ़ाते रहे,
लगाकर झूठ का दरबार।
अबकी बार पड़ी है
प्रकृति की मार।
कोरोना ने मचा दी
बिना भेद के सूरज ने
सबको सदा प्रकाश दिया।
पवन जल पुष्प फल सब
प्रकृति ने तुमको बेशर्त बांट दिया।
जाति धर्म रंग रूप
नस्ल के नाम पर,
फिर क्यों तुमने
मानव को बांट दिया।
Corona kavita
छल कपट झूठ अहिंसा को अपनाकर तुमने मानवता में आग लगाई।
दया प्रेम परोपकार को त्याग कर
क्यों तुमने स्वार्थ -सरिता बहाई।
अब खूंटी से बंधी है नाव,
साहिल पर पड़ी है पतवार।
बाजुएं बेजान हुई,
इंसान हुआ बड़ा लाचार।
जो तुम इसको दोगे,
वही तुम्हें मिलेगा
प्रकृति नहीं रखती कोई उधार।
करतूते काली इंसान की है,
इसमें अब क्या करेगा
कोई करतार।
अबकी बार पड़ी है
प्रकृति की मार।
कोरोना ने मचा दी
दुनिया में हाहाकार ।
Bablesh Kumar
1 टिप्पणियाँ
Good sir
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